Saturday 27 October, 2007

चिट्ठाजगत.इन का साथ सोच समझ के दें

दोस्तों,

चिट्ठाजगत.इन का साथ सोच समझ के दें, यह अनुभव है हमारे शुभ चिन्तकों का। छोटे दिल वाले और इस बात से विचलित होने वाले कि दुसरा एग्रीगेटर उन्हें दिखाना बंद कर देगा, चिट्ठाजगत.इन का साथ देने से पहले सोच लें। ऐसा तो होगा ही, सब चिट्ठाजगत.इन की तरह अपनी बुराई सुन कर उसे सुधारने की इच्छा नहीं रखते हैं।

आलोक जी ने कुछ पोल खोली बेनामी चिट्ठों की, वो बेनामी चिट्ठे जिस के थे उस ने अपने एग्रीगेटर से उन्हें हटा दिया, आलोक जी को इस से कोई फरक नहीं, मगर आप सावधान रहें।
http://devanaagarii.net/hi/alok/blog/2007/10/blog-post.html
आईना, हिन्दी टूलबार वाले जगदीश जी, सारथी वाले शास्त्री जी, पहले ही चुप चाप भुगत चुके हैं।

चिट्ठाजगत.इन की बुराई धड़ाधड़ करें, हमें अच्छा लगेगा।

2 comments:

Anonymous said...

ठीक है भाई, नारद से अपने सम्बन्ध तोड़ देता हूँ, और चिट्ठाविश्व से भी दोस्ती खत्म. आखिर ब्लॉगवाणी पर आना महत्त्वपूर्ण है.

यही सलाह जितूजी, अनुपजी, अमित, देबाशिषजी, प्रतिक पाण्डे को भी देता हूँ.

Shastri JC Philip said...

आपने मेरा नाम लिया आभार.

जालजगत में फिर् से जो आपसी प्रतिद्वन्दिता शुरू हो गई है वह किसी से भी छिपी नहीं है. लेकिन जैसे मैं ने पिछले दिनों एक टिप्पणी में लिखा था, "लोग इतिहास से कुछ नहीं सीखते".

गूगल इसलिये सपहल नहीं हुआ कि वह सिर्फ चुने हुए जालस्थलों को समेटता है, ब्ल्कि इसलिये सफल हुआ कि कोई भी जालस्थ्ल उसकी सूची के बाहर नहीं है.

किसी भी प्रकार का खोज यंत्र या एग्रीगेटर तभी सफल होगा जब वह "वृहद" होगा या "स्पेशियलाईज्ड" होगा. हिन्दी एाग्रीगेटरों मे स्पेशियलाईजेशन तो 100,000 चिट्ठों के बाद ही हो पायगा. अभी तो वे ही सफल होंगे जो "वृहद" स्तर पर कार्य करेंगे. यह एक आसान काम नहीं है क्योंकि इसके लिये व्यक्तिगत पसंदनापसंद आदि को नजर अंदाज करके एक "वसुधैव कुटुम्बकम" का नजरिया अपनाना होगा.

(मात्रा की गलतियां क्षमा करें. मै अपने घर-दफ्तर सिर्फ 8 को पहुंचूंगा. इस संगणक पर हिन्दी चल रही है यह मेरे लिये बहुत है) -- शास्त्री

हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है